प्रशांत कुमार दुबे
भोपाल स्थित राज्य टीबी अस्पताल में पिछले दो माह से अपने दो बच्चों के साथ अपना इलाज करा रही सलमा के सामने टीबी के अलावा इस बीमारी से जुड़े लांछन से भी निबटने की चुनौती हैे उनके पति उन्हें इस अस्पताल में भर्ती तो करा गए लेकिन फिर वापस नहीं आये सलमा का कहना है कि उन्हें लगता है यह छूत की बीमारी है और यह उनको भी लग जायेगीे हाल ही में मध्यप्रदेश की राज्यपाल आनंदी बेन पटेल ने अपने दौरे के दौरान उनसे अपना दर्द साझा कियो राज्यपाल महोदया ने भी तत्काल अधिकारियों को परिजनों की काउंसिलिंग कराने के निर्देश दे दिये टीबी बीमारी को लेकर सामाजिक लांछन से जूझ रही केवल सलमा अकेली नहीं है बल्कि भोपाल के ही आरिफ नगर में अपने पिता के घर रह रही इकरा तलाक का दंश झेल रही हैें उन्हें 4 माह पहले टीबी होने का पता चलो इसके बाद सब कुछ इतनी तेजी से घटा कि 4 माह में उनकी सामाजिक स्थिति भी बदल गई और वे विवाहित से तलाकशुदा हो गईें अब उन्हें घरेलू कामगार के रूप में काम करके अपनी आजीविका चलानी पड़ रही हैे

टीबी को लेकर सामाजिक लांछन का दंश केवल पीड़ितों को ही नहीं बल्कि उनकी दूसरी पीढ़ियों को भी झेलना पड़ रहा हैे भोपाल के ही आरिफ नगर में ही गर्भवती महिला नजमा को टीबी का पता चला और उसके बाद उसे परिजनों ने एक कमरे तक सीमित कर दियो बेटी का जन्म हुआ और यह मानते हुए कि इससे बच्ची तो टीबी हो जायेगी, परिजनों ने उसे माँ का दूध पिलाने नहीं दिया जिससे उसकी प्रतिरोधक क्षमता कमजोर हो गईे उचित इलाज न मिलने और इलाज में देरी के चलते नजमा चल बसीे आज बच्ची 2 साल की है और गंभीर कुपोषित हैे उसे भी टीबी की बीमारी ने जकड़ लिया है और परिजनों ने खबर लिखे जाने तक तो उसका इलाज शुरू नहीं कराया हैे बच्ची की दादी इसके लिए उसकी माँ को दोषी मानती हैें

उपरोक्त प्रकरण तो केवल बानगी हैें देश और प्रदेश में एक गंभीर बीमारी का दर्जा लेने के बाद भी आज सबसे बड़ी चुनौती इस बीमारी से जुड़े लांछन से निबटने की हैे तमाम प्रगति और विकास सूचकांकों की चकाचौंध में आज भी टीबी को लेकर लांछन कायम है और जिसके चलते पीड़ितों के साथ अलग-अलग स्तर का भेदभाव सामने आता हैे लांछन के चलते टीबी पीड़ित सामने नहीं आते हैं और टीबी लिए फिरते रहते हैें देश के लिए चिंताजनक यह तथ्य है कि एक बड़ा आंकड़ा देश में छिपे हुए टीबी रोगियों का भी हैे ज्ञात हो कि मध्यप्रदेश में ऐसे 32 हजार टीबी मरीज हैं जिनकी जानकारी किसी के पास नहीं है लेकिन वे दूसरों को टीबी बांट रहे हैं। हम जानते हैं कि एक मरीज साल में 16 मरीजों को टीबी से संक्रमित कर सकता है। वजह कई बार उन्हें खुद पता नहीं है कि वे टीबी से ग्रसित हैं और कई बार उन्हें छिपा दिया जाता हैे अनुमान के अनुसार प्रदेश में एक लाख की आबादी पर टीबी के 216 मरीज हैं। इस लिहाज से प्रदेश में हर साल 1 लाख 68 हजार नए मरीज मिलने चाहिए, लेकिन 2017 में 1 लाख 36 हजार मरीज ही खोजे गए।

टीबी को लेकर सामाजिक लांछन से महिलाएं ज्यादा शिकार हैें अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान शाखा(एम्स) भोपाल के डिपार्टमेंट ऑफ़ कम्युनिटी एंड फेमिली मेडिसिन के डाक्टर सूर्यबाली के नेतृत्व में किया गया  हालिया अध्ययन इस बात पर मुहर लगता हैे अध्ययन में सामने आया कि 18-30 साल की ज्यादातर महिलाएं सिर्फ इस वजह से टीबी का इलाज नहीं कराती हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि यह बात सार्वजनिक हो जाने पर शादीशुदा जिन्दगी खतरे में पड़ सकती हैे बाद में काफी देर हो चुकी होती हैे यही वजह है कि भोपाल में हर साल टीबी से मरने वालों में 70 फीसदी महिलाएं जबकि डायग्नोज़ होने वालों में यह प्रतिशत महज 30-35 प्रतिशत के बीच हैें अध्ययन यह भी कहता है कि 18 वर्ष की उम्र की लड़की ने तो यह भी माना कि टीबी का पता चलने के बाद उसने किसी को इसलिए नहीं बताया कि कहीं उसकी सगाई टूट न जाएे

ज्ञात हो कि इण्डिया टीबी रिपोर्ट 2016 के अनुसार भारत में 4लाख 80 हजार मौतें हुई हैे यानी हर दिन लगभग 1300 मौतें हुई हैें इतनी विपरीत स्थिति होने के बावजूद लांछन को लेकर भारत सरकार के पुनरीक्षित राष्ट्रीय तपेदिक नियंत्रण(आरएनटीसीपी) कार्यक्रम में कोई विशिष्ट व्यवस्था नहीं हैे जबकि टीबी के जानकार मानते हैं कि टीबी होने पर या शुरूआती लक्षणों के पता चलते ही मरीज और परिजनों को परामर्श (काउंसिलिंग) की जरुरत है ताकि इस रोग के विषय में होने वाली भ्रांतियों, खतरों से आगाह करने तथा दवा का कोर्स पूरा करने तक मरीज की जीजिविषा बरक़रार रखी जा सके राज्यपाल महोदया ने भी काउंसिलिंग की बात कही है लेकिन शायद उन्हें यह पता नहीं है कि आरएनटीसीपी  में किसी भी स्तर पर काउंसलर का कोई भी प्रावधान नहीं हैे इस मसले पर राज्य टीबी अधिकारी अतुल खराटे कहते हैं कि लांछन आज भी एक सच्चाई तो है लेकिन हम उससे पार पाने की कोशश में लगे हैें स्टिग्मा से निबटने के लिए हमारे पास केवल प्रचार सामग्री (आईईसी) हैे लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि यदि यह प्रचार सामग्री इतनी ही कारगर होती तो फिर आज लांछन को लेकर इतनी हायतौबा नहीं मचनी चाहिए?

जब तक भारत जैसे देश में समाज में व्याप्त कुरीतियों और लांछन पर एक साथ चोट नहीं की जायेगी तब तक टीबी से पार पाना एक बड़ी चुनौती हैे टीबी सर्वाइवर और ऐसे टीबी मरीज़ जिन्हें लगातार देखभाल की जरुरत है, बड़े पैमाने पर फैले भेदभाव के कारण अक्सर उपचार तक पहुंच नहीं पाते या फिर टीबी के बारे में बोलने से डरते हैं। टीबी से हमारी लड़ाई की शुरुआत लोगों और समुदायों को सशक्त बनाने और इस बीमारी से जुड़े लांछन को कम करने से होनी चाहिए लेकिन दुर्भाग्यवश हमारे पास ऐसी कोई योजना अभी तक तो नहीं हैे भारत को तत्काल सार्वजनिक जागरूकता, रोकथाम, सामुदायिक सहभागिता और लांछन कम करने के मुद्दों पर ध्यान देने की जरूरत है।


 (लेखक एसएटीबी फेलो हैं और टीबी और स्टिग्मा पर लेखन कर रहे हैें)

 

Source : प्रशांत कुमार दुबे